( अनन्तधर्मात्मक ✽सर्व द्रव्य-गुण-पर्यायोंको ) प्रत्येक
समयमें यथास्थित, परिपूर्णरूपसे स्पष्ट और एक साथ
जानता है, उसे केवलज्ञान कहते हैं ।
विपर्यय–विपरीत ज्ञान । जैसे कि–सीपको चाँदी जानना और
चाँदीको सीप जानना । अथवा शुभास्रवसे वास्तवमें
आत्महित मानना; देहादि परद्रव्यको स्व-रूप मानना,
अपनेसे भिन्न न मानना ।
व्रत– शुभकार्य करना और अशुभकार्यको छोड़ना सो व्रत है अथवा
✽द्रव्य, गुण, पर्यायोंको केवलज्ञानी भगवान जानते हैं; किन्तु उनके
अपेक्षित धर्मोंको नहीं जान सकते–ऐसा मानना सो असत्य है और
वह अनन्तको अथवा मात्र आत्माको ही जानते हैं; किन्तु सर्वको
नहीं जानते हैं — ऐसा मानना भी न्यायसे विरुद्ध है । (लघु जैन
सि. प्रवेशिका प्रश्न ८७, पृष्ठ २६) केवलज्ञानी भगवान
क्षायोपशमिक ज्ञानवाले जीवोंकी भाँति अवग्रह, ईहा, अवाय और
धारणारूप क्रमसे नहीं जानते; किन्तु सर्व द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव
को युगपत् (एकसाथ) जानते हैं — इसप्रकार उन्हें सब कुछ
प्रत्यक्ष वर्तता है । (प्रवचनसार गाथा २१ की टीका– भावार्थ ।)
अति विस्तारसे बस होओ, अनिवारित (रोका न जा सके ऐसा–
अमर्यादित) जिसका विस्तार है — ऐसे प्रकाशवाला होनेसे
क्षायिकज्ञान (केवलज्ञान) अवश्यमेव सर्वदा, सर्वत्र, सर्वथा,
सर्वको जानता है । (प्रवचनसार गाथा ४७ की टीका ।)
टिप्पणी–श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानसे सिद्ध
होता है कि प्रत्येक द्रव्यमें निश्चित और क्रमबद्ध पर्यायें होती
हैं — उल्टी-सीधी नहीं होतीं ।
चौथी ढाल ][ १२५