हैं। वह साधकजीवको नीचली दशामें जो शुभराग सहित चारित्र
होता है उसको सरागचारित्र या व्यवहार चारित्र भी कहा गया
है । लेकिन उसमें जो शुद्धिका अंश है वह उपली शुद्धिरूप
निश्चय वीतराग चारित्रका कारण होनेसे शास्त्रोंमें उस शुद्धिके
साथ वर्तते रागको भी उपचारसे उपली शुद्धिका कारण
व्यवहारसे कहा जाता है । क्योंकि उस जीवको अल्प समयमें
शुभभावरूप कचाश दूर होकर पूर्णशुद्धता प्रगट होती है।
साध्य
क्रमशः शुद्धता होती जाती है। यह दोनों पर्यायें होनेसे वह
पर्यायार्थिकनयका विषय है। इस ग्रन्थमें कुछ स्थानों पर निश्चय
और व्यवहार शब्दोंका प्रयोग किया गया है, वहाँ उनका अर्थ
इसीप्रकार समझना चाहिए। व्यवहार (शुभभाव)का व्यय वह
साधक और निश्चय (शुद्धभाव)का उत्पाद वह साध्य
साध्य’’
नाम है; क्योंकि बाह्य संयोग-वियोग, शरीर, राग, देव-गुरु-