मानता है कि अपने अन्तरसे ही अर्थात् अपने त्रैकालिक शुद्ध
चैतन्यस्वरूपके आश्रयसे ही अपनेको लाभ हो सकता है।
परमात्मा वह आत्माकी सम्पूर्ण शुद्ध दशा है। इनके अतिरिक्त
अन्य अनेक विषय इस ग्रन्थमें लिए गये हैं; उन सबको
सावधानीपूर्वक समझना आवश्यक है।
कारण है। इसके उपरान्त शास्त्राभ्यासमें निम्नोक्त बातोंका ध्यान
रहना चाहिये :
(२) सम्यग्दर्शन प्राप्त किये बिना किसी भी जीवको सच्चे व्रत,
क्रिया प्रथम पाँचवें गुणस्थानमें शुभभावरूपसे होती है।
दृष्टिमें वह हेय होनेसे वह उससे कदापि हितरूप धर्मका होना
नहीं मानता।
होगा ऐसा नहीं मानता; क्योंकि अनन्त वीतरागदेवोंने उसे बन्धका
कारण कहा है।