ही नित्य और स्थायी है ।
ऐसा स्वोन्मुखतापूर्वक चिंतवन करके, सम्यग्दृष्टि जीव
वीतरागताकी वृद्धि करता है, यह ‘‘अनित्य भावना’’ है । मिथ्यादृष्टि
जीवको अनित्यादि एक भी भावना यथार्थ नहीं होती ।।३।।
२. अशरण भावना. अशरण भावना
सुर असुर खगाधिप जेते, मृग ज्यों हरि, काल दले ते ।
मणि मंत्र तंत्र बहु होई, मरते न बचावै कोई ।।४।।
अन्वयार्थ : – (सुर असुर खगाधिप) देवोंके इन्द्र,
असुरोंके इन्द्र और खगेन्द्र [गरुड़, हंस ] (जेते) जो-जो हैं (ते)
उन सबका (मृग हरि ज्यों) जिसप्रकार हिरनको सिंह मार डालता
है; उसीप्रकार (काल) मृत्यु (दले) नाश करता है । (मणि)
चिन्तामणि आदि मणिरत्न, (मंत्र) बड़े-बड़े रक्षामंत्र; (तंत्र) तंत्र,
(बहु होई) बहुतसे होने पर भी (मरते) मरनेवालेको (कोई) वे
कोई (न बचावै) नहीं बचा सकते ।
भावार्थ : – इस संसारमें जो-जो देवेन्द्र, असुरेन्द्र, खगेन्द्र,
पाँचवीं ढाल ][ १३३