इसमें (सुख) सुख (लगारा) लेशमात्र भी (नाहिं) नहीं है ।
काल, भव तथा भाव) परावर्तन करता रहता है; किन्तु कभी शांति
प्राप्त नहीं करता; इसलिए वास्तवमें संसारभाव सर्वप्रकारसे
साररहित है, उसमें किंचित्मात्र सुख नहीं है; क्योंकि जिसप्रकार
सुखकी कल्पना की जाती है, वैसा सुखका स्वरूप नहीं है और
जिसमें सुख मानता है वह वास्तवमें सुख नहीं है; किन्तु वह
परद्रव्यके आलम्बनरूप मलिन भाव होनेसे आकुलता उत्पन्न
करनेवाला भाव है । निज आत्मा ही सुखमय है, उसके ध्रुवस्वभावमें
संसार है ही नहीं –ऐसा स्वोन्मुखतापूर्वक चिंतवन करके सम्यग्दृष्टि
जीव वीतरागतामें वृद्धि करता है, यह ‘‘संसार भावना’’ है