Chha Dhala (Hindi). Gatha: 7: 5. anyatva bhAvanA (Dhal 5).

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अन्वयार्थ :(जेते) जितने (शुभ-करमफल)
शुभकर्मके फल और (अशुभ-करमफल) अशुभकर्मके फल हैं (ते
ते) वे सब (जिय) यह जीव (एक हि) अकेला ही (भोगै) भोगता
है; (सुत) पुत्र (दारा) स्त्री (सीरी) साथ देनेवाले (न होय) नहीं
होते । (सब) वे सब (स्वारथके) अपने स्वार्थके (भीरी) सगे (हैं)
हैं ।
भावार्थ :जीवका सदा अपने स्वरूपसे अपना एकत्व
और परसे विभक्तपना है; इसलिये वह स्वयं ही अपना हित अथवा
अहित कर सकता है –परका कुछ नहीं कर सकता । इसलिये
जीव जो भी शुभ या अशुभ भाव करता है, उनका फल (आकुलता)
वह स्वयं अकेला ही भोगता है, उसमें अन्य कोई-स्त्री, पुत्र,
मित्रादि सहायक नहीं हो सकते; क्योंकि वे सब पर पदार्थ हैं और
वे सब पदार्थ जीवको ज्ञेयमात्र हैं; इसलिये वे वास्तवमें जीवके
सगे-सम्बन्धी हैं ही नहीं; तथापि अज्ञानी जीव उन्हें अपना मानकर
दुःखी होता है । परके द्वारा अपना भला-बुरा होना मानकर परके
साथ कर्तृत्व-ममत्वका अधिकार मानता है; वह अपनी भूलसे ही
अकेला दुःखी होता है ।
संसारमें और मोक्षमें यह जीव अकेला ही है–ऐसा जानकर
सम्यग्दृष्टि जीव निज शुद्ध आत्माके साथ ही सदैव अपना एकत्व
मानकर अपनी निश्चयपरिणति द्वारा शुद्ध एकत्वकी वृद्धि करता है,
यह ‘‘एकत्व भावना’’ है
।।।।
५. अन्यत्व भावना. अन्यत्व भावना
जल-पय ज्यों जिय-तन मेला, पै भिन्न-भिन्न नहिं भेला
तो प्रगट जुदे धन-धामा, क्यों ह्वै इक मिलि सुत-रामा ।।।।
१३६ ][ छहढाला