ते) वे सब (जिय) यह जीव (एक हि) अकेला ही (भोगै) भोगता
है; (सुत) पुत्र (दारा) स्त्री (सीरी) साथ देनेवाले (न होय) नहीं
होते । (सब) वे सब (स्वारथके) अपने स्वार्थके (भीरी) सगे (हैं)
हैं ।
अहित कर सकता है –परका कुछ नहीं कर सकता । इसलिये
जीव जो भी शुभ या अशुभ भाव करता है, उनका फल (आकुलता)
वह स्वयं अकेला ही भोगता है, उसमें अन्य कोई-स्त्री, पुत्र,
मित्रादि सहायक नहीं हो सकते; क्योंकि वे सब पर पदार्थ हैं और
वे सब पदार्थ जीवको ज्ञेयमात्र हैं; इसलिये वे वास्तवमें जीवके
सगे-सम्बन्धी हैं ही नहीं; तथापि अज्ञानी जीव उन्हें अपना मानकर
दुःखी होता है । परके द्वारा अपना भला-बुरा होना मानकर परके
साथ कर्तृत्व-ममत्वका अधिकार मानता है; वह अपनी भूलसे ही
अकेला दुःखी होता है ।
मानकर अपनी निश्चयपरिणति द्वारा शुद्ध एकत्वकी वृद्धि करता है,
यह ‘‘एकत्व भावना’’ है