स्वसन्मुखतापूर्वक सम्यग्दृष्टि जीव वीतरागताकी वृद्धि करता है, यह
‘‘अन्यत्व भावना’’ है ।।७।।
६. अशुचि भावना. अशुचि भावना
पल रुधिर राध मल थैली, कीकस वसादितैं मैली ।
नव द्वार बहैं घिनकारी, अस देह करे किम यारी ।।८।।
अन्वयार्थ : – जो (पल) माँस (रुधिर) रक्त (राध)
पीव और (मल) विष्टाकी (थैली) थैली है, (कीकस) ही,
(वसादितैं) चरबी आदिसे (मैली) अपवित्र है और जिसमें
(घिनकारी) घृणा-ग्लानि उत्पन्न करनेवाले (नव द्वार) नौ दरवाजे
(बहैं) बहते हैं, (अस) ऐसे (देह) शरीरमें (यारी) प्रेम-राग
(किमि) कैसे (करै) किया जा सकता है?
भावार्थ : – यह शरीर तो माँस, रक्त पीव, विष्टा आदिकी
थैली है और वह हयिाँ, चरबी आदिसे भरा होनेके कारण अपवित्र
है तथा नौ द्वारोंसे मैल बाहर निकलता है, ऐसे शरीरके प्रति मोह-
राग कैसे किया जा सकता है ? यह शरीर ऊपरसे तो मक्खीके
पंख समान पतली चमड़ीमें मढ़ा हुआ है; इसलिये बाहरसे सुन्दर
१३८ ][ छहढाला