Chha Dhala (Hindi). Gatha: 9: 7. Ashrav bhAvanA (Dhal 5).

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लगता है, किन्तु यदि उसकी भीतरी हालतका विचार किया जाये
तो उसमें अपवित्र वस्तुएँ भरी हैं; इसलिये उसमें ममत्व, अहंकार
या राग करना व्यर्थ है ।
यहाँ शरीरको मलिन बतलानेका आशय–भेदज्ञान द्वारा
शरीरके स्वरूपका ज्ञान कराके, अविनाशी निज पवित्र पदमें रुचि
कराना है; किन्तु शरीरके प्रति द्वेषभाव उत्पन्न करानेका आशय
नहीं । शरीर तो उसके अपने स्वभावसे ही अशुचिमय है और यह
भगवान आत्मा निजस्वभावसे ही शुद्ध एवं सदा शुचिमय पवित्र
चैतन्य पदार्थ है; इसलिये सम्यग्दृष्टि जीव अपने शुद्ध आत्माकी
सन्मुखता द्वारा अपनी पर्यायमें शुचिताकी (पवित्रताकी) वृद्धि करता
है, यह ‘‘अशुचि भावना’’ है
।।।।
७. आस्रव भावना. आस्रव भावना
जो योगनकी चपलाई, तातैं ह्वै आस्रव भाई
आस्रव दुखकार घनेरे, बुद्धिवन्त तिन्हें निरवेरे ।।।।
अन्वयार्थ :(भाई) हे भव्य जीव ! (योगनकी)
योगोंकी (जो) जो (चपलाई) चंचलता है, (तातैं) उससे (आस्रव)
आस्रव (ह्वै) होता है और (आस्रव) वह आस्रव (घनेरे) अत्यन्त
पाँचवीं ढाल ][ १३९