तो उसमें अपवित्र वस्तुएँ भरी हैं; इसलिये उसमें ममत्व, अहंकार
या राग करना व्यर्थ है ।
कराना है; किन्तु शरीरके प्रति द्वेषभाव उत्पन्न करानेका आशय
नहीं । शरीर तो उसके अपने स्वभावसे ही अशुचिमय है और यह
भगवान आत्मा निजस्वभावसे ही शुद्ध एवं सदा शुचिमय पवित्र
चैतन्य पदार्थ है; इसलिये सम्यग्दृष्टि जीव अपने शुद्ध आत्माकी
सन्मुखता द्वारा अपनी पर्यायमें शुचिताकी (पवित्रताकी) वृद्धि करता
है, यह ‘‘अशुचि भावना’’ है
आस्रव (ह्वै) होता है और (आस्रव) वह आस्रव (घनेरे) अत्यन्त