उसे (निरवेरे) दूर करें।
कर्मयोग्य रजकणोंका स्वयं-स्वतः आना (आत्माके साथ एक क्षेत्रमें
आगमन होना) सो द्रव्य-आस्रव है । [उसमें जीवकी अशुद्ध पर्यायें
निमित्तमात्र हैं । ]
उस समय नवीन कर्मयोग्य रजकणोंका स्वयं-स्वतः आना
(आत्माके साथ एक क्षेत्रमें आगमन होना) सो द्रव्यपुण्य है । उसमें
जीवकी अशुद्धपर्याय निमित्तमात्र है ।
सो द्रव्यपाप है। [उसमें जीवकी अशुद्ध पर्यायें निमित्त मात्र हैं । ]
पुण्य-पाप तो परवस्तु हैं, वे कहीं आत्माका हित-अहित नहीं कर
सकते–ऐसा यथार्थ निर्णय प्रत्येक ज्ञानी जीवको होता है और
इसप्रकार विचार करके सम्यग्दृष्टि जीव स्वद्रव्यके अवलम्बनके
बलसे जितने अंशमें आस्रवभावको दूर करता है, उतने अंशमें
उसे वीतरागताकी वृद्धि होती है–उसे ‘‘आस्रव भावना’’ कहते
हैं