Chha Dhala (Hindi). Gatha: 10: 8. sanvar bhAvanA (Dhal 5).

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८. संवर भावना. संवर भावना
जिन पुण्य-पाप नहिं कीना, आतम-अनुभव चित दीना
तिनही विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके ।।१०।।
अन्वयार्थ :(जिन) जिन्होंने (पुण्य) शुभभाव और
(पाप) अशुभभाव (नहिं कीना) नहीं किये तथा मात्र (आतम)
आत्माके (अनुभव) अनुभवमें [शुद्ध उपयोगमें ] (चित) ज्ञानको
(दीना) लगाया है (तिनही) उन्होंने ही (आवत) आते हुए (विधि)
कर्मोंको (रोके) रोका है और (संवर लहि) संवर प्राप्त करके
(सुख) सुखका (अवलोके) साक्षात्कार किया है ।
भावार्थ :आस्रवका रोकना सो संवर है । सम्यग्दर्शनादि
द्वारा मिथ्यात्वादि आस्रव रुकते हैं । शुभोपयोग तथा अशुभोपयोग
दोनों बन्धके कारण हैं–ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव पहलेसे ही जानता
है । यद्यपि साधकको निचली भूमिकामें शुद्धताके साथ अल्प
शुभाशुभभाव होते हैं; किन्तु वह दोनोंको बन्धका कारण मानता है;
इसलिये सम्यग्दृष्टि जीव स्वद्रव्यके आलम्बन द्वारा जितने अंशमें
शुद्धता करता है, उतने अंशमें उसे संवर होता है और वह क्रमशः
शुद्धतामें वृद्धि करते हुए पूर्ण शुद्धता अर्थात् संवर प्राप्त करता है ।
यह ‘‘संवर भावना’’ है
।।१०।।
पाँचवीं ढाल ][ १४१