Chha Dhala (Hindi). Gatha: 11: 9. nirjarA bhAvanA (Dhal 5).

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९. निर्जरा भावना. निर्जरा भावना
निज काल पाय विधि झरना, तासों निज काज न सरना
तप करि जो कर्म खिपावै, सोई शिवसुख दरसावै ।।११।।
अन्वयार्थ :जो (निज काल) अपनी-अपनी स्थिति
(पाय) पूर्ण होने पर (विधि) कर्म (झरना) खिर जाते हैं (तासों)
उससे (निज काज) जीवका धर्मरूपी कार्य (न सरना) नहीं होता;
किन्तु (जो) [निर्जरा ] (तप करि) आत्माके शुद्ध प्रतपन द्वारा
(कर्म) कर्मोंका (खिपावै) नाश करती है [वह अविपाक अथवा
सकाम निर्जरा है । ] (सोई) वह (शिवसुख) मोक्षका सुख
(दरसावै) दिखलाती है ।
भावार्थ :अपनी-अपनी स्थिति पूर्ण होने पर कर्मोंका
खिर जाना तो प्रति समय अज्ञानीको भी होता है; वह कहीं शुद्धिका
कारण नहीं होता। परन्तु सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र द्वारा अर्थात्
आत्माके शुद्ध प्रतपन द्वारा जो कर्म खिर जाते हैं, वह अविपाक
अथवा सकाम निर्जरा कहलाती है । तदनुसार शुद्धिकी वृद्धि होते-
होते सम्पूर्ण निर्जरा होती है, तब जीव शिवसुख अर्थात् सुखकी
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