उससे (निज काज) जीवका धर्मरूपी कार्य (न सरना) नहीं होता;
किन्तु (जो) [निर्जरा ] (तप करि) आत्माके शुद्ध प्रतपन द्वारा
(कर्म) कर्मोंका (खिपावै) नाश करती है [वह अविपाक अथवा
सकाम निर्जरा है । ] (सोई) वह (शिवसुख) मोक्षका सुख
(दरसावै) दिखलाती है ।
कारण नहीं होता। परन्तु सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र द्वारा अर्थात्
आत्माके शुद्ध प्रतपन द्वारा जो कर्म खिर जाते हैं, वह अविपाक
अथवा सकाम निर्जरा कहलाती है । तदनुसार शुद्धिकी वृद्धि होते-
होते सम्पूर्ण निर्जरा होती है, तब जीव शिवसुख अर्थात् सुखकी