स्थित रहकर निरन्तर अपनी नई-नई पर्यायों अर्थात् अवस्थाओंसे
उत्पाद-व्ययरूप परिणमन करते रहते हैं । एक द्रव्यमें दूसरे
द्रव्यका अधिकार नहीं है । यह छह द्रव्यस्वरूप लोक वह मेरा
स्वरूप नहीं है, वह मुझसे त्रिकाल भिन्न है, मैं उससे भिन्न हूँ;
मेरा शाश्वत चैतन्य-लोक ही मेरा स्वरूप है –ऐसा धर्मी जीव
विचार करता है और स्वोन्मुखता द्वारा विषमता मिटाकर,
साम्यभाव-वीतरागता बढ़ानेका अभ्यास करता है, यह ‘‘लोक
भावना’’ है
किये; तथापि (सम्यग्ज्ञान) सम्यग्ज्ञान (न लाधौ) प्राप्त न हुआ;
(दुर्लभ) ऐसे दुर्लभ सम्यग्ज्ञानको (मुनि) मुनिराजोंने (निजमें)
अपने आत्मामें (साधौ) धारण किया है ।