उसने एक बार भी सम्यग्ज्ञान प्राप्त नहीं किया; क्योंकि सम्यग्ज्ञान
प्राप्त करना वह अपूर्व है; उसे तो स्वोन्मुखताके अनन्त पुरुषार्थ
द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है और ऐसा होने पर विपरीत
अभिप्राय आदि दोषोंका अभाव होता है ।
चारों गतिके लौकिक पद अनन्तबार प्राप्त किये हैं; किन्तु निज
आत्माका यथार्थ स्वरूप स्वानुभव द्वारा प्रत्यक्ष करके उसे कभी
नहीं समझा, इसलिये उसकी प्राप्ति अपूर्व है ।
स्वसन्मुखतापूर्वक ऐसा चिंतवन करता है और अपनी बोधि और
शुद्धिकी वृद्धिका बारम्बार अभ्यास करता है, यह ‘‘बोधिदुर्लभ
भावना’’ है