ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय आदिक (भाव) भाव हैं, (सो) वह (धर्म)
धर्म कहलाता है । (जबै) जब (जिय) जीव (धारै) उसे धारण
करता है (तब ही) तभी वह (अचल सुख) अचल सुख-मोक्ष
(निहारै) देखता है–प्राप्त करता है ।
(रत्नत्रय) ही साररूप धर्म है । व्यवहार रत्नत्रय वह धर्म नहीं
है–ऐसा बतलानेके लिये यहाँ गाथामें ‘‘सारे’’ शब्दका प्रयोग किया
है । जब जीव निश्चय रत्नत्रयस्वरूप धर्मको स्वाश्रय द्वारा प्रगट
करता है, तभी वह स्थिर, अक्षयसुख (मोक्ष) प्राप्त करता है ।
इसप्रकार चिंतवन करके सम्यग्दृष्टि जीव स्वोन्मुखता द्वारा शुचिकी
वृद्धि बारम्बार करता है । यह ‘‘धर्म भावना’’ है
(तिनकी) उन मुनियोंकी (करतूति) क्रियाएँ (उचरिये) कही जाती
हैं, (भवि प्रानी) हे भव्य जीवों ! (ताको) उसे (सुनिये) सुनो और
(अपनी) अपने आत्माके (अनुभूति) अनुभवको (पिछानी)
पहिचानो ।