मुनियोंके सकलचारित्रका वर्णन किया जाता है । हे भव्यों ! उन
मुनिवरोंका चारित्र सुनो और अपने आत्माका अनुभव करो
यह बारह प्रकारकी भावनाएँ भानेसे वीतरागताकी वृद्धि होती है ।
इन बारह भावनाओंका चिंतवन मुख्यरूपसे तो वीतरागी दिगम्बर
जैन मुनिराजको ही होता है तथा गौणरूपसे सम्यग्दृष्टिको भी होता
है । जिसप्रकार पवनके लगनेसे अग्नि भभक उठती है; उसीप्रकार
अन्तरंग परिणामोंकी शुद्धता सहित इन भावनाओंका चिंतवन
करनेसे समताभाव प्रगट होता है और उससे मोक्षसुख प्रगट होता
है । स्वोन्मुखतापूर्वक इन भावनाओंसे संसार, शरीर और भोगोंके
प्रति विशेष उपेक्षा होती है और आत्माके परिणामोंकी निर्मलता
बढ़ती है ।
करना चाहिये ।
क्योंकि यह तो जिसप्रकार पहले किसीको मित्र मानता था, तब
उसके प्रति राग था और फि र उसके अवगुण देखकर उसके प्रति
उदासीन हो गया । उसीप्रकार पहले शरीरादिसे राग था, किन्तु