नहीं सकती। व्रत-प्रत्याख्यान करनेवाले ज्ञानी हैं अथवा
अज्ञानी, — यह जानना आवश्यक है। यदि वे अज्ञानी हों तो उन्हें
सच्चे व्रतादि होते ही नहीं, इसलिए उन्हें छोड़नेका प्रश्न ही
उपस्थित नहीं होता। यदि व्रत करनेवाले ज्ञानी होंगे तो
छद्मस्थदशामें वे व्रतका त्याग करके अशुभमें जायेंगे – ऐसा मानना
न्याय – विरुद्ध है। परन्तु ऐसा हो सकता है कि क्रमशः शुभभावको
टालकर शुद्धभावकी वृद्धि करें..... और वह तो लाभका कारण
है – हानिका नहीं। इसलिए सत्य कथनसे किसीको हानि हो ही
नहीं सकती।
जिज्ञासुजन विशेष स्पष्टतासे समझ सकें — इस बातको
लक्षमें रखकर श्री ब्रह्मचारी गुलाबचन्दजीने मूल गुजराती पुस्तकमें
यथासम्भव शुद्धि – वृद्धि की है। अन्य जिन-जिन बन्धुओंने इस
कार्यमें सहयोग दिया है उन्हें हार्दिक धन्यवाद !
यह गुजराती पुस्तकका अनुवाद है। इसका अनुवाद श्री
मगनलालजी जैन, (वल्लभविद्यानगर)ने किया है जो हमारी
संस्थाके कई ग्रन्थोंके और आत्मधर्म-पत्रके अनुवादक है; अच्छी
तरह अनुवाद करनेके लिए उन्हें धन्यवाद !
श्री वर्द्धमान जयन्ती
वीर सं. २४८७
वि.सं. २०१७
सोनगढ (सौराष्ट्र)
रामजी माणेकचन्द दोशी
प्रमुख —
श्री दिगम्बर जैन स्वाध्यायमंदिर ट्रस्ट
सोनगढ (सौराष्ट्र)
(16)