हो नहीं सकता । (सम्यग्दर्शन-ज्ञान और आत्मामें लीनता द्वारा)
वीतरागभाव होने पर जहाँ मन-वचन-कायाकी चेष्टा न हो वही
गुप्ति है । (मोक्षमार्ग-प्रकाशक पृ. २३५) ।
मुनि प्रिय (अनुकूल) पाँच इन्द्रियोंके पाँच रस, पाँच रूप,
दो गंध, आठ स्पर्श तथा शब्दरूप पाँच विषयोंमें राग नहीं करते
और अप्रिय (प्रतिकूल) ऊपर कहे हुए पाँच विषयोंमें द्वेष नहीं
करते । –इसप्रकार (५) पाँच इन्द्रियोंको जीतनेके कारण वे
जितेन्द्रिय कहलाते हैं ।।४।।
मुनियोंके छह आवश्यक और शेष सात मूलगुण
समता सम्हारैं, थुति उचारैं, वन्दना जिनदेवको ।
नित करैं श्रुतिरति करैं प्रतिक्रम, तजैं तन अहमेवको ।।
जिनके न न्हौन, न दंतधोवन, लेश अम्बर-आवरन ।
भूमांहि पिछली रयनिमें कछु शयन एकासन करन ।।५।।
अन्वयार्थ : – [वीतरागी मुनि ] (नित) सदा (समता)
१६२ ][ छहढाला