(७) केशका लोंच करते हैं; आत्मध्यानमें मग्न रहकर परिषहोंसे
नहीं डरते अर्थात् बाईस प्रकारके परिषहों पर विजय प्राप्त करते
हैं तथा शत्रु-मित्र, महल-स्मशान, सुवर्ण-काँच, निन्दक और
स्तुति करनेवाले, पूजा-भक्ति करनेवाले या तलवार आदिसे प्रहार
करनेवाले इन सबमें समभाव (राग-द्वेषका अभाव) रखते हैं अर्थात्
किसी पर राग-द्वेष नहीं करते ।
उत्तर :–क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, डाँस-मच्छर, चर्या,
आक्रोश, याचना, सत्कार-पुरस्कार अलाभ, अदर्शन, प्रज्ञा और
अज्ञान–ये बाईस प्रकारके परिषह हैं । भावलिंगी मुनिको प्रतिसमय
तीन कषायका (अनन्तानुबन्धी आदिका) अभाव होनेसे स्वरूपमें
सावधानीके कारण जितने अंशमें राग-द्वेषकी उत्पत्ति नहीं होती,
उतने अंशमें उनका निरन्तर परिषह-जय होता है । क्षुधादिक लगने
पर उसके नाशका उपाय न करना उसे (अज्ञानी जीव) परिषह-
सहन करते हैं । वहाँ उपाय तो नहीं किया; किन्तु अंतरंगमें क्षुधादि
अनिष्ट सामग्री मिलनेसे दुःखी हुआ तथा रति आदिका कारण
मिलनेसे सुखी हुआ–किन्तु वे तो दुःख-सुखरूप परिणाम हैं और
वही आर्त-रौद्रध्यान है; ऐसे भावोंसे संवर किसप्रकार हो सकता
है ?
उत्तर :–तत्त्वज्ञानके अभ्याससे कोई पदार्थ इष्ट-अनिष्ट