Chha Dhala (Hindi). Gatha: 7: muniyoke tap, dhram, vihar tathA swaroopAcharan chAritra (Dhal 6).

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भासित न हो; दुःखके कारण मिलनेसे दुःखी न हो तथा सुखके
कारण मिलनेसे सुखी न हो; किन्तु ज्ञेयरूपसे उसका ज्ञाता ही
रहे –वही सच्चा परिषहजय है । (मोक्षमार्गप्रकाशक पृ. ३३६)
।।।।
मुनियोंके तप, धर्म, विहार तथा स्वरूपाचरणचारित्र
तप तपैं द्वादश, धरैं वृष दश, रतनत्रय सेवैं सदा
मुनि साथमें वा एक विचरैं, चहैं नहिं भवसुख कदा ।।
यों है सकलसंयम चरित, सुनिये स्वरूपाचरन अब
जिस होत प्रगटै आपनी निधि, मिटै परकी प्रवृत्ति सब ।।।।
अन्वयार्थ :[वे वीतरागी मुनि सदा ] (द्वादश) बारह
प्रकारके (तप तपैं) तप करते हैं; (दश) दस प्रकारके (वृष)
धर्मको (धरैं) धारण करते हैं और (रतनत्रय) सम्यग्दर्शन,
सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्रका (सदा) सदा (सेवैं) सेवन करते
हैं । (मुनि साथमें) मुनियोंके संघमें (वा) अथवा (एक) अकेले
(विचरैं) विचरते हैं और (कदा) किसी भी समय (भवसुख)
सांसारिक सुखोंकी (नहिं चहैं) इच्छा नहीं करते । (यों) इसप्रकार
(सकल संयम चरित) सकल संयम चारित्र (है) है; (अब) अब
(स्वरूपाचरण) स्वरूपाचरण चारित्र सुनो । (जिस) जो
स्वरूपाचरण चारित्र [स्वरूपमें रमणतारूप चारित्र ] (होत) प्रगट
होनेसे (आपनी) अपने आत्माकी (निधि) ज्ञानादिक सम्पत्ति
(प्रगटै) प्रगट होती है तथा (परकी) परवस्तुओंकी ओरकी (सब)
सर्व प्रकारकी (प्रवृत्ति) प्रवृत्ति (मिटै) मिट जाती है ।
भावार्थ :(१) भावलिंगी मुनिका शुद्धात्मस्वरूपमें लीन
रहकर प्रतपना-प्रतापवन्त वर्तना सो तप है तथा हठरहित बारह
१६६ ][ छहढाला