कारण मिलनेसे सुखी न हो; किन्तु ज्ञेयरूपसे उसका ज्ञाता ही
रहे –वही सच्चा परिषहजय है । (मोक्षमार्गप्रकाशक पृ. ३३६)
धर्मको (धरैं) धारण करते हैं और (रतनत्रय) सम्यग्दर्शन,
सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्रका (सदा) सदा (सेवैं) सेवन करते
हैं । (मुनि साथमें) मुनियोंके संघमें (वा) अथवा (एक) अकेले
(विचरैं) विचरते हैं और (कदा) किसी भी समय (भवसुख)
सांसारिक सुखोंकी (नहिं चहैं) इच्छा नहीं करते । (यों) इसप्रकार
(सकल संयम चरित) सकल संयम चारित्र (है) है; (अब) अब
(स्वरूपाचरण) स्वरूपाचरण चारित्र सुनो । (जिस) जो
स्वरूपाचरण चारित्र [स्वरूपमें रमणतारूप चारित्र ] (होत) प्रगट
होनेसे (आपनी) अपने आत्माकी (निधि) ज्ञानादिक सम्पत्ति
(प्रगटै) प्रगट होती है तथा (परकी) परवस्तुओंकी ओरकी (सब)
सर्व प्रकारकी (प्रवृत्ति) प्रवृत्ति (मिटै) मिट जाती है ।