तो जैसे अंतरंग-परिणाम होंगे, वैसा ही फल प्राप्त करेगा ।
बाह्य-तप जैसा ही जानना; जैसी बाह्य-क्रिया है; उसीप्रकार यह
भी बाह्य-क्रिया है; इसलिये प्रायश्चित आदि बाह्य-साधन भी
अन्तरंग तप नहीं हैं ।
ही है, वहाँ बन्ध नहीं होता तथा उस शुद्धताका अल्पांश भी रहे
तो जितनी शुद्धता हुई उससे तो निर्जरा है, तथा जितना शुभभाव
है उनसे बन्ध है । इसप्रकार अनशनादि क्रियाको उपचारसे
तपसंज्ञा दी गई है– ऐसा जानना और इसलिये उसे व्यवहारतप
कहा है । व्यवहार और उपचारका एक ही अर्थ है ।
उपचारसे कहे हैं; उन्हें व्यवहारमात्र धर्मसंज्ञा जानना । इस
रहस्यको (अज्ञानी) नहीं जानता; इसलिये उसे निर्जराका-तपका-
भी सच्चा श्रद्धान नहीं है ।