Chha Dhala (Hindi).

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प्रश्न :–यदि ऐसा है तो, अनशनादिको तपकी संज्ञा किस
प्रकार कही गई ?
उत्तर :–उन्हें बाह्य-तप कहा है; बाह्यका अर्थ यह है
कि–बाह्यमें दूसरोंको दिखाई दे कि यह तपस्वी है; किन्तु स्वयं
तो जैसे अंतरंग-परिणाम होंगे, वैसा ही फल प्राप्त करेगा ।
(३) तथा अन्तरंग तपोंमें भी प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य,
स्वाध्याय, त्याग और ध्यानरूप क्रियामें बाह्य प्रवर्तन है, वह तो
बाह्य-तप जैसा ही जानना; जैसी बाह्य-क्रिया है; उसीप्रकार यह
भी बाह्य-क्रिया है; इसलिये प्रायश्चित आदि बाह्य-साधन भी
अन्तरंग तप नहीं हैं ।
परन्तु ऐसा बाह्य प्रवर्तन होने पर जो अन्तरंग परिणामोंकी
शुद्धता हो, उसका नाम अन्तरंग तप जानना; और वहाँ तो निर्जरा
ही है, वहाँ बन्ध नहीं होता तथा उस शुद्धताका अल्पांश भी रहे
तो जितनी शुद्धता हुई उससे तो निर्जरा है, तथा जितना शुभभाव
है उनसे बन्ध है । इसप्रकार अनशनादि क्रियाको उपचारसे
तपसंज्ञा दी गई है– ऐसा जानना और इसलिये उसे व्यवहारतप
कहा है । व्यवहार और उपचारका एक ही अर्थ है ।
अधिक क्या कहें ? इतना समझ लेना कि –निश्चयधर्म तो
वीतरागभाव है तथा अन्य अनेक प्रकारके भेद निमित्तकी अपेक्षासे
उपचारसे कहे हैं; उन्हें व्यवहारमात्र धर्मसंज्ञा जानना । इस
रहस्यको (अज्ञानी) नहीं जानता; इसलिये उसे निर्जराका-तपका-
भी सच्चा श्रद्धान नहीं है ।
(मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २३३, टोडरमल स्मारक
ग्रन्थमालासे प्रकाशित)
१६८ ][ छहढाला