प्रश्न :–क्रोधादिका त्याग और उत्तम क्षमादि धर्म कब होता
है ?
उत्तर :–बन्धादिके भये अथवा स्वर्ग-मोक्षकी इच्छासे
(अज्ञानी जीव) क्रोधादिक नहीं करता; किन्तु वहाँ क्रोध-मानादि
करनेका अभिप्राय तो गया नहीं है । जिसप्रकार कोई राजादिके
भयसे अथवा बड़प्पन-प्रतिष्ठाके लोभसे परस्त्रीसेवन नहीं करता तो
उसे त्यागी नहीं कहा जा सकता; उसीप्रकार यह भी क्रोधादिका
त्यागी नहीं है । तो फि र किस प्रकार त्यागी होता है ?–कि पदार्थ
इष्ट-अनिष्ट भासित होने पर क्रोधादि होते हैं; किन्तु जब तत्त्वज्ञानके
अभ्याससे कोई इष्ट-अनिष्ट भासित न हो, तब स्वयं क्रोधादिककी
उत्पत्ति नहीं होती और तभी सच्चे क्षमादि धर्म होते हैं ।
(मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ २२९ टोडरमल स्मारक
ग्रन्थमालासे प्रकाशित)
(४) अब, आठवीं गाथामें स्वरूपाचरणचारित्रका वर्णन
करेंगे, उसे सुनो–कि जिसके प्रगट होनेसे आत्माकी अनन्तज्ञान,
अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य आदि शक्तियोंका पूर्ण
विकास होता है और परपदार्थके ओरकी सर्वप्रकारकी प्रवृत्ति दूर
होती है–वह स्वरूपाचरणचारित्र है ।।७।।
स्वरूपाचरणचारित्र (शुद्धोपयोग)का वर्णन
जिन परम पैनी सुबुधि छैनी, डारि अन्तर भेदिया ।
वरणादि अरु रागादितैं निज भावको न्यारा किया ।।
निजमांहि निजके हेतु निजकर, आपको आपै गह्यो ।
गुण-गुणी, ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय, मँझार कछु भेद न रह्यो ।।८।।
छठवीं ढाल ][ १६९