Chha Dhala (Hindi).

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अन्वयार्थ :(जिन) जो वीतरागी मुनिराज (परम)
अत्यंत (पैनी) तीक्ष्ण (सुबुधि) सम्यग्ज्ञान अर्थात् भेदविज्ञानरूपी
(छैनी) छैनी
(डारि) पटककर (अन्तर) अन्तरंगमें (भेदिया) भेद
करके (निजभावको) आत्माके वास्तविक स्वरूपको (वरणादि)
वर्ण, रस, गंध, तथा स्पर्शरूप द्रव्यकर्मसे (अरु) और (रागादितैं)
राग-द्वेषादिरूप भावकर्मसे (न्यारा किया) भिन्न करके (निजमांहिं)
अपने आत्मामें (निजके हेतु) अपने लिये (निजकर) अपने द्वारा
(आपको) आत्माको (आपै) स्वयं अपनेसे (गह्यो) ग्रहण करते हैं,
तब (गुण) गुण, (गुणी) गुणी, (ज्ञाता) ज्ञाता, (ज्ञेय) ज्ञानका
विषय और (ज्ञान मँझार) ज्ञानमें–आत्मामें (कछु भेद न रह्यो)
किंचित्मात्र भेद [विकल्प ] नहीं रहता ।
भावार्थ :जब स्वरूपाचरणचारित्रका आचरण करते
समय वीतरागी मुनि–जिसप्रकार कोई पुरुष तीक्ष्ण छैनी द्वारा
पत्थर आदिके दो भाग पृथक्-पृथक् कर देता है;
जिसप्रकार छैनी लोहेको काटकर दो टुकड़े कर देती है;
उसीप्रकार शुद्धोपयोग कर्मोंको काटता है और आत्मासे उन
कर्मोंको पृथक् कर देता है
१७० ][ छहढाला