उसीप्रकार–अपने अन्तरंगमें भेदविज्ञानरूपी छैनी द्वारा अपने
आत्माके स्वरूपको द्रव्यकर्मसे तथा शरीरादिक नोकर्मसे और राग-
द्वेषादिरूप भावकर्मोंसे भिन्न करके अपने आत्मामें, आत्माके लिये,
आत्माको स्वयं जानते हैं, तब उनके स्वानुभवमें गुण, गुणी तथा
ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय–ऐसे कोई भेद नहीं रहते ।।८।।
स्वरूपाचरणचारित्र (शुद्धोपयोग)का वर्णन
जहँ ध्यान-ध्याता ध्येयको न विकल्प, वच-भेद न जहाँ ।
चिद्भाव कर्म, चिदेश करता, चेतना किरिया तहाँ ।।
तीनों अभिन्न अखिन्न शुध-उपयोगकी निश्चल दशा ।
प्रगटी जहाँ दृग-ज्ञान-व्रत ये, तीनधा एकै लसा ।।९।।
अन्वयार्थ : – (जहँ) जिस स्वरूपाचरणचारित्रमें
(ध्यान) ध्यान, (ध्याता) ध्याता और (ध्येयको) ध्येय –इन तीनोंके
(विकल्प) भेद (न) नहीं होते तथा (जहाँ) जहाँ (वच) वचनका
(भेद न) विकल्प नहीं होता, (तहाँ) वहाँ तो (चिद्भाव) आत्माका
स्वभाव ही (कर्म) कर्म, (चिदेश) आत्मा ही (करता) कर्ता,
छठवीं ढाल ][ १७१