(चेतना) चैतन्यस्वरूप आत्मा ही (किरिया) क्रिया होता है– अर्थात्
कर्ता, कर्म और क्रिया–ये तीनों (अभिन्न) भेदरहित-एक, (अखिन्न)
अखण्ड [बाधारहित ] हो जाते हैं और (शुध उपयोगकी) शुद्ध
उपयोगकी (निश्चल) निश्चल (दशा) पर्याय (प्रगटी) प्रगट होती है;
(जहाँ) जिसमें (दृग-ज्ञान-व्रत) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और
सम्यक्चारित्र (ये तीनधा) यह तीनों (एकै) एकरूप-अभेदरूपसे
(लसा) शोभायमान होते हैं ।
भावार्थ : – वीतरागी मुनिराज स्वरूपाचरणके समय जब
आत्मध्यानमें लीन हो जाते हैं, तब ध्यान, ध्याता और ध्येय–ऐसे
भेद नहीं रहते; वचनका विकल्प नहीं होता; वहाँ (आत्मध्यानमें)
तो आत्मा ही ✽
कर्म, आत्मा ही कर्ता और आत्माका भाव वह क्रिया
होती है अर्थात् कर्ता-कर्म और क्रिया–ये तीनों बिलकुल अखण्ड,
अभिन्न हो जाते हैं और शुद्धोपयोगकी अचल दशा प्रगट होती है,
जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र एक साथ-
एकरूप होकर प्रकाशमान होते हैं ।।९।।
स्वरूपाचरणचारित्रका लक्षण और निर्विकल्प ध्यान
परमाण – नय – निक्षेपकौ न उद्योत अनुभवमें दिखै ।
दृग-ज्ञान-सुख-बलमय सदा, नहिं आन भाव जु मो विखै ।।
मैं साध्य साधक मैं अबाधक, कर्म अरु तसु फलनितैं ।
चित् पिंड चंड अखंड सुगुणकरंड च्युत पुनि कलनितैं ।।१०।।
अन्वयार्थ : – [उस स्वरूपाचरणचारित्रके समय
✽कर्म = कर्त्ता द्वारा हुआ कार्य; कर्त्ता = स्वतंत्ररूपसे करे सो कर्त्ता;
क्रिया = कर्त्ता द्वारा होनेवाली प्रवृत्ति ।
१७२ ][ छहढाला