Chha Dhala (Hindi).

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मुनियोंके ] (अनुभवमें) आत्मानुभवमें (परमाण) प्रमाण, (नय) नय
और (निक्षेपको) निक्षेपका विकल्प (उद्योत) प्रगट (न दिखै)
दिखाई नहीं देता, [परन्तु ऐसा विचार होता है कि– ] (मैं) मैं
(सदा) सदा (दृग-ज्ञान-सुख-बलमय) अनन्तदर्शन-अनन्तज्ञान-
अनन्तसुख और अनन्तवीर्यमय हूँ । (मो विखै) मेरे स्वरूपमें (आन)
अन्य राग-द्वेषादि (भाव) भाव (नहिं) नहीं हैं, (मैं) मैं (साध्य)
साध्य, (साधक) साधक तथा (कर्म) कर्म (अरु) और (तसु)
उसके (फलनितैं) फलोंके (अबाधक) विकल्परहित (चित् पिंड)
ज्ञान-दर्शन-चेतनास्वरूप (चण्ड) निर्मल तथा ऐश्वर्यवान (अखंड)
अखंड (सुगुण करंड) सुगुणोंका भंडार (पुनि) और (कलनितैं)
अशुद्धतासे (च्युत) रहित हूँ ।
भावार्थ :इस स्वरूपाचरणचारित्रके समय मुनियोंके
आत्मानुभवमें प्रमाण, नय और निक्षेपका विकल्प तो नहीं उठता;
किन्तु गुण-गुणीका भेद भी नहीं होता–ऐसा ध्यान होता है । प्रथम
ऐसा ध्यान होता है कि मैं अनन्तदर्शन-अनन्तज्ञान-अनन्तसुख और
अनन्तवीर्यरूप हूँ, मुझमें कोई रागादिक भाव नहीं हैं; मैं ही साध्य
छठवीं ढाल ][ १७३