हूँ, मैं ही साधक हूँ और कर्म तथा कर्मफलसे पृथक् हूँ । मैं ज्ञान-
दर्शन-चेतनास्वरूप निर्मल ऐश्वर्यवान तथा अखण्ड, सहज शुद्ध
गुणोंका भण्डार और पुण्य-पापसे रहित हूँ ।
तात्पर्य यह है कि सर्वप्रकारके विकल्पोंसे रहित निर्विकल्प
आत्मस्थिरताको स्वरूपाचरणचारित्र कहते हैं ।।१०।।
स्वरूपाचरणचारित्र और अरिहन्तदशा
यों चिन्त्य निजमें थिर भये, तिन अकथ जो आनंद लह्यो ।
सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा अहमिन्द्रकैं नाहीं कह्यो ।।
तब ही शुक्ल ध्यानाग्नि करि, चउघाति विधि-कानन दह्यो ।
सब लख्यो केवलज्ञान करि, भविलोकको शिवमग कह्यो ।।११।।
अन्वयार्थ : – [स्वरूपाचरणचारित्रमें ] (यों) इस प्रकार
(चिन्त्य) चिंतवन करके (निजमें) आत्मस्वरूपमें (थिर भये) लीन
होने पर (तिन) उन मुनियोंको (जो) जो (अकथ) कहा न जा
सके ऐसा — वचनसे पार–(आनन्द) आनन्द (लह्यो) होता है (सो)
वह आनन्द (इन्द्र) इन्द्रको, (नाग) नागेन्द्रको, (नरेन्द्र)
१७४ ][ छहढाला