Chha Dhala (Hindi). Gatha: 14: ratnatrayak phal aur Atmahitme pravruttika upadesh (Dhal 6).

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भावार्थ :सिद्ध भगवानके आत्मामें केवलज्ञान द्वारा लोक
और अलोक (समस्त पदार्थ) अपने-अपने गुण और तीनोंकालकी
पर्यायों सहित एक साथ, स्वच्छ दर्पणके दृष्टान्तरूपसे-सर्व प्रकारसे
स्पष्ट ज्ञात होते हैं; (किन्तु ज्ञानमें दर्पणकी भाँति छाया और
आकृति नहीं पड़ती) वे पूर्ण पवित्रतारूप मोक्षदशाको प्राप्त हुए हैं
तथा वह दशा वहाँ विद्यमान अन्य सिद्ध-मुक्त जीवोंकी भाँति
अनन्तानन्त काल तक रहेगी अर्थात् अपरिमित काल व्यतीत हो
जाये; तथापि उनकी अखण्ड ज्ञायकता-शान्ति आदिमें किंचित्
बाधा नहीं आती । यह मनुष्यपर्याय प्राप्त करके जिन जीवोंने यह
शुद्ध चैतन्यकी प्राप्तिरूप कार्य किया है, वे जीव महान धन्यवाद
(प्रशंसा)के पात्र हैं और उन्होंने अनादिकालसे चले आ रहे पंच
परावर्तनरूप संसारके परिभ्रमणका त्याग करके उत्तम सुख-
मोक्षसुख प्राप्त किया है
।।१३।।
रत्नत्रयका फल और आत्महितमें प्रवृत्तिका उपदेश
मुख्योपचार दु भेद यों बड़भागि रत्नत्रय धरैं
अरु धरेंगे ते शिव लहैं, तिन सुयश-जल जग-मल हरैं ।।
जिसप्रकार बीजको यदि जला दिया जाये तो वह उगता नहीं है;
उसीप्रकार जिन्होंने संसारके कारणोंका सर्वथा नाश कर दिया, वे पुनः
अवतार-जन्म धारण नहीं करते अथवा जिसप्रकार मक्खनसे घी हो
जानेके पश्चात् पुनः मक्खन नहीं बनता; उसीप्रकार आत्माकी सम्पूर्ण
पवित्रतारूप अशरीरी मोक्षदशा [परमात्मपद] प्रगट करनेके पश्चात्
उसमें कभी अशुद्धता नहीं आती अर्थात् संसारमें पुनः आगमन नहीं
होता ।
छठवीं ढाल ][ १७९