प्रकारके (रत्नत्रय) रत्नत्रयको (धरैं अरु धरेंगे) धारण करते हैं
और करेंगे (ते) वे (शिव) मोक्ष (लहैं) प्राप्त करते हैं और (तिन)
उन जीवोंका (सुयश-जल) सुकीर्तिरूपी जल (जग-मल)
संसाररूपी मैलको (हरैं) नाश करता है ।
(साहस) पुरुषार्थ (ठानि) करके (यह) यह (सिख) शिक्षा-उपदेश
(आदरौ) ग्रहण करो कि (जबलौं) जब तक (रोग जरा) रोग या
वृद्धावस्था (न गहै) न आये (तबलौं) तब तक (झटिति) शीघ्र
(निज हित) आत्माका हित (करौ) कर लेना चाहिये ।
तत्त्वोंका स्वरूप समझकर अपने शुद्ध उपादान-आश्रित
निश्चयरत्नत्रयको ( शुद्धात्माश्रित वीतरागभावस्वरूप मोक्षमार्गको)
धारण करते हैं तथा करेंगे वे जीव पूर्ण पवित्रतारूप मोक्षमार्गको
प्राप्त होते हैं और होंगे । [गुणस्थानके प्रमाणमें शुभराग आता है,
वह व्यवहार-रत्नत्रयका स्वरूप जानना तथा उसे निश्चयसे उपादेय
न मानना, उसका नाम व्यवहार-रत्नत्रयका धारण करना है । ] जो
जीव मोक्षको प्राप्त हुए हैं और होंगे उनका सुकीर्ति रूपी जल कैसा
है?–कि जो सिद्ध परमात्माका यथार्थ स्वरूप समझकर स्वोन्मुख
होनेवाले भव्य जीव हैं, उनके संसार (