नहीं है । तू (दुख) दुःख (क्यों) किसलिये (सहै) सहन करता है?
(दौल !) हे दौलतराम ! (अब) अब (स्वपद) अपने
आत्मपद–सिद्धपदमें (रचि) लगकर (सुखी) सुखी (होउ) होओ !
(यह) यह (दाव) अवसर (मत चूकौ) न गँवाओ !
रही है; इसलिये जीवोंको निश्चयरत्नत्रयमय समतारूपी अमृतका
पान करना चाहिये, जिससे राग-द्वेष-मोह (अज्ञान)का नाश हो ।
विषय-कषायोंका सेवन विपरीत पुरुषार्थ द्वारा अनादिकालसे कर
रहा है; अब उसका त्याग करके आत्मपद (मोक्ष) प्राप्त करना
चाहिये । तू दुःख किसलिये सहन करता है ? तेरा वास्तविक
स्वरूप अनन्तदर्शन-ज्ञान-सुख और अनन्तवीर्य है, उसमें लीन
होना चाहिये । ऐसा करनेसे ही सच्चा-सुख मोक्ष प्राप्त हो सकता
है; इसलिये हे दौलतराम ! हे जीव ! अब आत्मस्वरूपकी प्राप्ति
कर ! आत्मस्वरूपको पहिचान ! यह उत्तम अवसर बारम्बार प्राप्त
नहीं होता; इसलिये इसे न गँवा । सांसारिक मोहका त्याग करके
मोक्षप्राप्तिका उपाय कर !
हो रहा है; इसलिये अपने यथार्थ पुरुषार्थसे ही सुखी हो सकता
है । ऐसा नियम होनेसे जड़कर्मके उदयसे या किसी परके कारण
दुःखी हो रहा है अथवा परके द्वारा जीवको लाभ-हानि होते हैं
–ऐसा मानना उचित नहीं है