Chha Dhala (Hindi).

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भेदोंका किंचित् विकल्प नहीं रहता; शुद्ध उपयोगरूप अभेद
रत्नत्रय द्वारा शुद्ध चैतन्यका ही अनुभव होने लगता है, उसे
स्वरूपाचरणचारित्र कहते हैं । यह स्वरूपाचरणचारित्र चौथे
गुणस्थानसे प्रारम्भ होकर मुनिदशामें अधिक उच्च होता है ।
तत्पश्चात् शुक्लध्यान द्वारा चार घातिकर्मोंका नाश होने पर वह
जीव केवलज्ञान प्राप्त करके १८ दोष रहित श्री अरिहन्तपद प्राप्त
करता है; फि र शेष चार अघातिकर्मोंका भी नाश करके क्षणमात्रमें
मोक्ष प्राप्त कर लेता है; उस आत्मामें अनन्तकाल तक अनन्त
चतुष्टयका (अनन्तज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्यका) एक-सा अनुभव होता
रहता है; फि र उसे पंचपरावर्तनरूप संसारमें नहीं भटकना पड़ता;
वह कभी अवतार धारण नहीं करता; सदैव अक्षय-अनन्त सुखका
अनुभव करता है; अखण्डित ज्ञान-आनन्दरूप अनन्तगुणोंमें निश्चल
रहता है; उसे मोक्षस्वरूप कहते हैं ।
जो जीव मोक्षकी प्राप्तिके लिये इस रत्नत्रयको धारण करते
हैं और करेंगे, उन्हें अवश्य ही मोक्षकी प्राप्ति होगी । प्रत्येक संसारी
जीव मिथ्यात्व, कषाय और विषयोंका सेवन तो अनादिकालसे
करता आया है; किन्तु उससे उसे किंचित् शान्ति प्राप्त नहीं हुई ।
शान्तिका एकमात्र कारण तो मोक्षमार्ग है; उसमें उस जीवने कभी
तत्परतापूर्वक प्रवृत्ति नहीं की; इसलिये अब भी यदि शान्तिकी
(आत्महितकी) इच्छा हो तो आलस्यको छोड़कर, (आत्माका)
कर्तव्य समझकर; रोग और वृद्धावस्थादि आनेसे पूर्व ही मोक्षमार्गमें
प्रवृत्त हो जाना चाहिये; क्योंकि यह पुरुषपर्याय, सत्समागम आदि
सुयोग बारम्बार प्राप्त नहीं होते; इसलिये उन्हें व्यर्थ न गँवाकर
अवश्य ही आत्महित साध लेना चाहिये ।
१८४ ][ छहढाला