नय–निश्चय और व्यवहार ।
निक्षेप–नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव–ये चार हैं ।
प्रमाण–प्रत्यक्ष और परोक्ष ।
छठवीं ढालका लक्षण-संग्रह
अंतरंग तप–शुभाशुभ इच्छाओंके निरोधपूर्वक आत्मामें निर्मल
ज्ञान-आनंदके अनुभवसे अखण्डित प्रतापवन्त रहना;
निस्तरंग चैतन्यरूपसे शोभित होना ।
अनुभव–स्वोन्मुख हुए ज्ञान और सुखका रसास्वादन ।
वस्तु विचारत ध्यावतैं, मन पावे विश्राम ।
रस स्वादत सुख ऊपजै, अनुभव याको नाम ।।
आवश्यक–मुनियोंको अवश्य करने योग्य स्ववश शुद्ध आचरण ।
कायगुप्ति–कायाकी ओर उपयोग न जाकर आत्मामें ही लीनता ।
गुप्ति–मन, वचन, कायाकी ओर उपयोगकी प्रवृत्तिको भली-भाँति
आत्मभानपूर्वक रोकना अर्थात् आत्मामें ही लीनता होना सो
गुप्ति है ।
तप–स्वरूपविश्रान्त, निस्तरंगरूपसे निज शुद्धतामें प्रतापवन्त
होना–शोभायमान होना सो तप है । उसमें जितनी शुभाशुभ
इच्छाओंका निरोध होकर शुद्धता बढ़ती है, वह तप है,
अन्य बारह भेद तो व्यवहार (उपचार) तपके हैं ।
ध्यान–सर्व विकल्पोंको छोड़कर अपने ज्ञानको लक्षमें स्थिर करना
सो ध्यान है ।
छठवीं ढाल ][ १८७