वचनगुप्ति–बोलनेकी इच्छाको रोकना अर्थात् आत्मामें लीनता ।
शुक्लध्यान–अत्यन्त निर्मल, वीतरागता पूर्ण ध्यान ।
शुद्ध उपयोग–शुभ-अशुभ राग-द्वेषादिसे रहित आत्माकी चारित्र-
परिणति ।
समिति–प्रमादरहित यत्नाचारसहित सम्यक् प्रवृत्ति ।
स्वरूपाचरणचारित्र–आत्म–स्वरूपमें एकाग्रतापूर्वक रमणता
– लीनता ।
अन्तर-प्रदर्शन
१. ‘‘नय’’ तो ज्ञाता अर्थात् जाननेवाला है और ‘‘निक्षेप’’ ज्ञेय
अर्थात् ज्ञानमें ज्ञात होने योग्य है ।
२. प्रमाण तो वस्तुके सामान्य-विशेष समस्त भागोंको जानता है;
किन्तु नय वस्तुके एक भागको मुख्य रखकर जानता है ।
३. शुभ उपयोग तो बन्धका अथवा संसारका कारण है; किन्तु
शुद्ध उपयोग निर्जरा और मोक्षका कारण है ।
प्रश्नावली
१. अंतरंग तप, अनुभव, आवश्यक, गुप्ति, गुप्तियाँ, तप,
द्रव्यहिंसा, अहिंसा, ध्यानस्थ मुनि, नय, निश्चय, आत्मचारित्र,
परिग्रह, प्रमाण, प्रमाद, प्रतिक्रमण, बहिरंग तप, भावहिंसा,
अहिंसा, महाव्रत, पंच महाव्रत, रत्नत्रय, शुद्धात्म अनुभव,
शुद्ध उपयोग, शुक्लध्यान, समिति और समितियोंके लक्षण
बतलाओ ।
छठवीं ढाल ][ १८९