तिर्यंचगतिमें असंज्ञी तथा संज्ञीके दुःख
कबहूँ पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो ।
सिंहादिक सैनी ह्वै क्रूर, निबल पशु हति खाये भूर ।।६।।
अन्वयार्थ : – [यह जीव ] (कबहूँ) कभी (पंचेन्द्रिय)
पंचेन्द्रिय (पशु) तिर्यंच (भयो) हुआ [तो ] (मन बिन) मनके बिना
(निपट) अत्यन्त (अज्ञानी) मूर्ख (थयो) हुआ [और ] (सैनी) संज्ञी
[भी ] (ह्वै) हुआ [तो ] (सिंहादिक) सिंह आदि (क्रूर) क्रूर जीव
(ह्वै) होकर (निबल) अपनेसे निर्बल, (भूर) अनेक (पशु) तिर्यंच
(हति) मार-मारकर (खाये) खाये ।
भावार्थ : – यह जीव कभी पंचेन्द्रिय असंज्ञी पशु भी हुआ
तो मनरहित होनेसे अत्यन्त अज्ञानी रहा और कभी संज्ञी हुआ तो
सिंह आदि क्रूर-निर्दय होकर, अनेक निर्बल जीवोंको मार-मारकर
खाया तथा घोर अज्ञानी हुआ ।।६।।
८ ][ छहढाला