जानकर (तजिये) छोड़ देना चाहिये । [इसलिए ] इन तीनोंका
(संक्षेप) संक्षेपसे (कहूँ बखान) वर्णन करता हूँ, उसे (सुन)
सुनो ।
भावार्थ : – इस चरणसे ऐसा समझना चाहिये कि
मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्रसे ही जीवको दुःख होता है अर्थात्
शुभाशुभ रागादि विकार तथा परके साथ एकत्वकी श्रद्धा, ज्ञान
और मिथ्या आचरणसे ही जीव दुःखी होता है; क्योंकि कोई संयोग
सुख-दुःखका कारण नहीं हो सकता –ऐसा जानकर सुखार्थीको
इन मिथ्याभावोंका त्याग करना चाहिये । इसलिये मैं यहाँ संक्षेपमें
उन तीनोंका वर्णन करता हूँ ।।१।।
अगृहीत-मिथ्यादर्शन और जीवतत्त्वका लक्षण
जीवादि प्रयोजनभूत तत्त्व, सरधैं तिनमांहि विपर्ययत्व ।
चेतनको है उपयोग रूप, बिनमूरत चिन्मूरत अनूप ।।२।।
अन्वयार्थ : – (जीवादि) जीव, अजीव, आस्रव, बंध,
संवर, निर्जरा और मोक्ष (प्रयोजनभूत) प्रयोजनभूत (तत्त्व) तत्त्व
हैं, (तिनमांहि) उनमें (विपर्ययत्व) विपरीत (सरधैं) श्रद्धा करना
दूसरी ढाल ][ ३१