[सो अगृहीत मिथ्यादर्शन है । ] (चेतनको) आत्माका (रूप) स्वरूप
(उपयोग) देखना-जानना अथवा दर्शन-ज्ञान है [और वह ]
(बिनमूरत) अमूर्तिक (चिन्मूरत) चैतन्यमय [तथा ] (अनूप) उपमा
रहित है ।
भावार्थ : – यथार्थरूपसे शुद्धात्मदृष्टि द्वारा जीव, अजीव,
आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष –इन सात तत्त्वोंकी श्रद्धा
करनेसे सम्यग्दर्शन होता है; इसलिये इन सात तत्त्वोंको जानना
आवश्यक है । सातों तत्त्वोंका विपरीत श्रद्धान करना उसे
अगृहीत मिथ्यादर्शन कहते हैं । जीव ज्ञान-दर्शन उपयोगस्वरूप
अर्थात् ज्ञाता-दृष्टा है । अमूर्तिक, चैतन्यमय तथा उपमारहित
है ।।२।।
जीवतत्त्वके विषयमें मिथ्यात्व (विपरीत श्रद्धा)
पुद्गल नभ धर्म अधर्म काल, इनतैं न्यारी है जीव चाल ।
ताकों न जान विपरीत मान, करि करै देहमें निज पिछान ।।३।।
अन्वयार्थ : – (पुद्गल) पुद्गल (नभ) आकाश (धर्म)
धर्म (अधर्म) अधर्म (काल) काल (इनतैं) इनसे (जीव चाल) जीवका
स्वभाव अथवा परिणाम (न्यारी) भिन्न (है) है; [तथापि मिथ्यादृष्टि
३२ ][ छहढाला