Chha Dhala (Hindi). Gatha: 4: mithyAdrashtikA sareer tatha parvastuo sambadhee vichar (Dhal 2).

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जीव ] (ताकों) उस स्वभावको (न जान) नहीं जानता और
(विपरीत) विपरीत (मान करि) मानकर (देहमें) शरीरमें (निज)
आत्माकी (पिछान) पहिचान (करे) करता है ।
भावार्थ :पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल –ये
पाँच अजीव द्रव्य हैं । जीव त्रिकाल ज्ञानस्वरूप तथा पुद्गलादि
द्रव्योंसे पृथक् है, किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव आत्माके स्वभावकी यथार्थ
श्रद्धा न करके अज्ञानवश विपरीत मानकर, शरीर ही मैं हूँ, शरीरके
कार्य मैं कर सकता हूँ, मैं अपनी इच्छानुसार शरीरकी व्यवस्था
रख सकता हूँ– ऐसा मानकर शरीरको ही आत्मा मानता है ।
[यह जीवतत्त्वकी विपरीत श्रद्धा है । ]
।।।।
मिथ्यादृष्टिका शरीर तथा परवस्तुओं सम्बन्धी विचार
मैं सुखी दुखी मैं रंक राव, मेरे धन गृह गोधन प्रभाव
मेरे सुत तिय मैं सबल दीन, बेरूप सुभग मूरख प्रवीण ।।।।
अन्वयार्थ :[मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यादर्शनके कारणसे
मानता है कि ] (मैं) मैं (सुखी) सुखी (दुखी) दुःखी, (रंक)
निर्धन, (राव) राजा हूँ, (मेरे) मेरे यहाँ (धन) रुपया-पैसा आदि
(गृह) घर (गोधन) गाय, भैंस आदि (प्रभाव) बड़प्पन [है; और ]
दूसरी ढाल ][ ३३