Chha Dhala (Hindi). Gatha: 5: ajeev aur Ashravtattvakee vipareet shraddhA (Dhal 2).

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(मेरे सुत) मेरी संतान तथा (तिय) मेरी स्त्री है; (मैं) मैं (सबल)
बलवान, (दीन) निर्बल, (बेरूप) कुरूप, (सुभग) सुन्दर, (मूरख)
मूर्ख और (प्रवीण) चतुर हूँ ।
भावार्थ :(१) जीवतत्त्वकी भूल–जीव तो त्रिकाल
ज्ञानस्वरूप है, उसे अज्ञानी जीव नहीं जानता-मानता और जो
शरीर है सो मैं ही हूँ, शरीरके कार्य मैं कर सकता हूँ, शरीर
स्वस्थ हो तो मुझे लाभ हो, बाह्य अनुकूल संयोगोंसे मैं सुखी और
प्रतिकूल संयोगोंसे मैं दुःखी, मैं निर्धन, मैं धनवान, मैं बलवान, मैं
निर्बल, मैं मनुष्य, मैं कुरूप, मैं सुन्दर–ऐसा मानता है; शरीराश्रित
उपदेश तथा उपवासादि क्रियाओंमें अपनत्व मानता है– इत्यादि
मिथ्या अभिप्राय द्वारा जो अपने परिणाम नहीं हैं, उन्हें आत्माका
परिणाम मानता है, वह जीवतत्त्वकी भूल है
।।।।
अजीव और आस्रवतत्त्वकी विपरीत श्रद्धा
तन उपजत अपनी उपज जान, तन नशत आपको नाश मान
रागादि प्रगट ये दुख देन, तिनहीको सेवत गिनत चैन ।।।।
जो शरीरादि पदार्थ दिखाई देते हैं, वे आत्मा से भिन्न हैं; उनके ठीक
रहने या बिगड़नेसे आत्माका कुछ भी अच्छा-बुरा नहीं होता;
किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव इससे विपरीत मानता है ।
३४ ][ छहढाला