लाभ-हानि नहीं पहुँचा सकते; तथापि उन्हें इष्ट-अनिष्ट मानकर
उनमें प्रीति-अप्रीति करता है; मिथ्यात्व, राग-द्वेषका स्वरूप नहीं
जानता; पर पदार्थ मुझे सुख-दुःख देते हैं अथवा राग-द्वेष-मोह
कराते हैं –ऐसा मानता है, यह आस्रवतत्त्वकी भूल है ।।।५।।
बन्ध और संवरतत्त्वकी विपरीत श्रद्धा
शुभ-अशुभ बंधके फल मँझार, रति-अरति करै निजपद विसार ।
आतमहितहेतु विराग ज्ञान, ते लखै आपको कष्टदान ।।६।।
अन्वयार्थ : – [मिथ्यादृष्टि जीव ] (निजपद) आत्माके
स्वरूपको (विसार) भूलकर (बंधके) कर्मबन्धके (शुभ) अच्छे (फल
मंझार) फलमें (रति) प्रेम (करै) करता है और कर्मबन्धके (अशुभ)
बुरे फलसे (अरति) द्वेष करता है; [तथा जो ] (विराग) राग-द्वेषका
अभाव [अर्थात् अपने यथार्थ स्वभावमें स्थिरतारूप✽ सम्यक्चारित्र ]
और (ज्ञान) सम्यग्ज्ञान [और सम्यग्दर्शन ] (आतमहित) आत्माके
हितके (हेतु) कारण हैं, (ते) उन्हें (आपको) आत्माको (कष्टदान)
दुःख देनेवाले (लखै) मानता है ।
भावार्थ :भावार्थ : – (१) बन्धतत्त्वकी भूल– अघाति कर्मके
✽अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख और अनंतवीर्य ही आत्माका
सच्चा स्वरूप है ।
३६ ][ छहढाला