रोकता, और (निराकुलता) आकुलताके अभावको (शिवरूप)
मोक्षका स्वरूप (न जोय) नहीं मानता । (याही) इस (प्रतीतिजुत)
मिथ्या मान्यता सहित (कछुक ज्ञान) जो कुछ ज्ञान है (सो) वह
(दुखदायक) कष्ट देनेवाला (अज्ञान) अगृहीत मिथ्याज्ञान है –ऐसा
(जान) समझना चाहिए ।
निर्जरा कहा जाता है; यह निश्चयसम्यग्दर्शन पूर्वक ही हो
सकती है । ज्ञानानन्दस्वरूपमें स्थिर होनेसे शुभ-अशुभ इच्छाका
निरोध होता है, वह तप है । तप दो प्रकारका है; (१) बालतप,
(२) सम्यक्तप; अज्ञानदशामें जो तप किया जाता है वह
बालतप है, उससे कभी सच्ची निर्जरा नहीं होती; किन्तु
आत्मस्वरूपमें सम्यक्प्रकारसे स्थिरता-अनुसार जितना शुभ-
अशुभ इच्छाका अभाव होता है वह सच्ची निर्जरा है-सम्यक्तप
है; किन्तु मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा नहीं मानता । अपनी अनन्त
ज्ञानादि शक्तिको भूलकर पराश्रयमें सुख मानता है, शुभाशुभ
इच्छा तथा पाँच इन्द्रियोंके विषयोंकी चाहको नहीं रोकता–यह
निर्जरातत्त्वकी विपरीत श्रद्धा है ।
वही सच्चा सुख है । किन्तु अज्ञानी ऐसा नहीं मानता ।