Chha Dhala (Hindi). Gatha: 9: gruhit mithyAdarshan aur kuguruke lakShan (Dhal 2).

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गृहीत मिथ्यादर्शन और कुगुरुके लक्षण
जो कुगुरु कुदेव कुधर्म सेव, पोषैं चिर दर्शनमोह एव
अंतर रागादिक धरैं जेह, बाहर धन अम्बरतैं सनेह ।।।।
गाथा १० (पूर्वार्द्ध)० (पूर्वार्द्ध)
धारैं कुलिंग लहि महतभाव, ते कुगुरु जन्मजल उपलनाव
अन्वयार्थ :(जो) जो (कुगुरु) मिथ्या गुरुकी
(कुदेव) मिथ्या देवकी और (कुधर्म) मिथ्या धर्मकी (सेव) सेवा
करता है, वह (चिर) अति दीर्घकाल तक (दर्शनमोह)
मिथ्यादर्शन (एव) ही (पोषैं) पोषता है । (जेह) जो (अंतर)
अंतरमें (रागादिक) मिथ्यात्व-राग-द्वेष आदि (धरैं) धारण करता
है और (बाहर) बाह्यमें (धन अम्बरतैं) धन तथा वस्त्रादिसे
(सनेह) प्रेम रखता है, तथा (महत भाव) महात्मापनेका भाव
(लहि) ग्रहण करके (कुलिंग) मिथ्यावेषोंको (धारैं) धारण करता
है, वह (कुगुरु) कुगुरु कहलाता है और वह कुगुरु (जन्मजल)
संसाररूपी समुद्रमें (उपलनाव) पत्थरकी नौका समान है ।
भावार्थ :कुगुरु, कुदेव और कुधर्मकी सेवा
करनेसे दीर्घकाल तक मिथ्यात्वका ही पोषण होता है अर्थात्
कुगुरु, कुदेव और कुधर्मका सेवन ही गृहीत मिथ्यादर्शन
कहलाता है ।
परिग्रह दो प्रकारका है; एक अंतरंग और दूसरा बहिरंग;
मिथ्यात्व, राग-द्वेषादि अंतरंग परिग्रह है और वस्त्र, पात्र, धन,
मकानादि बहिरंग परिग्रह हैं । जो वस्त्रादि सहित होने पर भी
अपनेको जिनलिंगधारी मानते हैं वे कुगुरु हैं । ‘‘जिनमार्गमें तीन
४० ][ छहढाला