करता है, वह (चिर) अति दीर्घकाल तक (दर्शनमोह)
मिथ्यादर्शन (एव) ही (पोषैं) पोषता है । (जेह) जो (अंतर)
अंतरमें (रागादिक) मिथ्यात्व-राग-द्वेष आदि (धरैं) धारण करता
है और (बाहर) बाह्यमें (धन अम्बरतैं) धन तथा वस्त्रादिसे
(सनेह) प्रेम रखता है, तथा (महत भाव) महात्मापनेका भाव
(लहि) ग्रहण करके (कुलिंग) मिथ्यावेषोंको (धारैं) धारण करता
है, वह (कुगुरु) कुगुरु कहलाता है और वह कुगुरु (जन्मजल)
संसाररूपी समुद्रमें (उपलनाव) पत्थरकी नौका समान है ।
कुगुरु, कुदेव और कुधर्मका सेवन ही गृहीत मिथ्यादर्शन
कहलाता है ।
मकानादि बहिरंग परिग्रह हैं । जो वस्त्रादि सहित होने पर भी
अपनेको जिनलिंगधारी मानते हैं वे कुगुरु हैं । ‘‘जिनमार्गमें तीन