मुनिलिंग, दूसरा उत्कृष्ट श्रावकरूप दसवीं-ग्यारहवीं प्रतिमाधारी
श्रावकलिंग और तीसरा आर्यिकाओंका रूप–यह स्त्रियोंका
लिंग,–इन तीनके अतिरिक्त कोई चौथा लिंग सम्यग्दर्शन स्वरूप
नहीं है; इसलिये इन तीनके अतिरिक्त अन्य लिंगोंको जो
मानता है, उसे जिनमतकी श्रद्धा नहीं है; किन्तु वह मिथ्यादृष्टि
है । (दर्शनपाहुड गाथा १८)’’ इसलिये जो कुलिंगके धारक हैं,
मिथ्यात्वादि अंतरंग तथा वस्त्रादि बहिरंग परिग्रह सहित हैं,
अपनेको मुनि मानते हैं, मनाते हैं वे कुगुरु हैं । जिस प्रकार
पत्थरकी नौका डूब जाती है तथा उसमें बैठने वाले भी डूबते
हैं; उसीप्रकार कुगुरु भी स्वयं संसार-समुद्रमें डूबते हैं और
उनकी वंदना तथा सेवा-भक्ति करनेवाले भी अनंत संसारमें
डूबते हैं अर्थात् कुगुरुकी श्रद्धा, भक्ति, पूजा, विनय तथा
अनुमोदना करनेसे गृहीत मिथ्यात्वका सेवन होता है और उससे
जीव अनंतकाल तक भव-भ्रमण करता है