है ।
कथन करें, अथवा (५) जगतका कोई कर्ता-हर्ता तथा नियंता है
ऐसा वर्णन करें, अथवा (६) दया, दान, महाव्रतादिक शुभराग –जो
कि पुण्यास्रव है, पराश्रय है उससे तथा साधुको आहार देनेके
शुभभावसे संसार परित (अल्प, मर्यादित) होना बतलायें तथा
उपदेश देनेके शुभभावसे परमार्थरूप धर्म होता है –इत्यादि अन्य
धर्मियोंके ग्रंथोंमें जो विपरीत कथन हैं, वे एकान्त और अप्रशस्त
होनेके कारण कुशास्त्र हैं; क्योंकि उनमें प्रयोजनभूत सात तत्त्वोंकी
यथार्थता नहीं है । जहाँ एक तत्त्वकी भूल हो, वहाँ सातों तत्त्वकी
भूल होती ही है, ऐसा समझना चाहिये
इच्छा करके (देहदाह) शरीरको कष्ट देनेवाली (आतम अनात्मके)
आत्मा और परवस्तुओंके (ज्ञानहीन) भेदज्ञानसे रहित (तन)
शरीरको (छीन) क्षीण (करन) करनेवाली (विविध विध) अनेक
प्रकारकी (जे जे करनी) जो-जो क्रियाएँ हैं, वे सब (मिथ्याचारित्र)
मिथ्याचारित्र हैं ।