(सुपाग) भली-भाँति लीन हो जाओ ।
मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रका त्याग करके आत्मकल्याणके मार्गमें
लगना चाहिये । श्री पण्डित दौलतराम जी अपने आत्माको
सम्बोधन करके कहते हैं कि –हे आत्मन् ! पराश्रयरूप संसार
अर्थात् पुण्य-पापमें भटकना छोड़कर सावधानीसे आत्मस्वरूपमें
लीन हो
भोग रहा है । जब तक देहादिसे भिन्न अपने आत्माकी सच्ची प्रतीति
तथा रागादिका अभाव न करे, तब तक सुख-शान्ति और आत्माका
उद्धार नहीं हो सकता ।
यथार्थ प्रतीति, (३) स्व-परके स्वरूपकी श्रद्धा, (४) निज
शुद्धात्माके प्रतिभासरूप आत्माकी श्रद्धा,–इन चार लक्षणोंके
अविनाभावसहित सत्य श्रद्धा (निश्चय सम्यग्दर्शन) जब तक जीव
प्रगट न करे, तब तक जीव (आत्माका) उद्धार नहीं हो सकता
अर्थात् धर्मका प्रारम्भ भी नहीं हो सकता और तब तक आत्माको
अंशमात्र भी सच्चा अतीन्द्रिय सुख प्रगट नहीं होता ।