Chha Dhala (Hindi).

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(३) सात तत्त्वोंकी मिथ्याश्रद्धा करना उसे मिथ्यादर्शन
कहते हैं । अपने स्वतंत्र स्वरूपकी भूलका कारण आत्मस्वरूपमें
विपरीत श्रद्धा होनेसे ज्ञानावरणी आदि द्रव्यकर्म, शरीरादि नोकर्म
तथा पुण्य-पाप-रागादि मलिनभावोंमें एकताबुद्धि-कर्ताबुद्धि है और
इसलिये शुभराग तथा पुण्य हितकर है; शरीरादि परपदार्थोंकी
अवस्था (क्रिया) मैं कर सकता हूँ, पर मुझे लाभ-हानि कर सकता
है, तथा मैं परका कुछ कर सकता हूँ–ऐसी मान्यताके कारण उसे
सत्-असत्का विवेक होता ही नहीं । सच्चा सुख तथा हितरूप
श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र अपने आत्माके ही आश्रयसे होते हैं, इस
बातकी भी उसे खबर नहीं होती ।
(४) पुनश्च, कुदेव-कुगुरु-कुशास्त्र और कुधर्मकी श्रद्धा,
पूजा, सेवा तथा विनय करनेकी जो-जो प्रवृत्ति है वह अपने
मिथ्यात्वादि महान दोषोंको पोषण करनेेवाली होनेसे दुःखदायक
है, अनन्त संसार-भ्रमणका कारण है । जो जीव उसका सेवन
करता है, उसे कर्तव्य समझता है वह दुर्लभ मनुष्य-जीवनको
नष्ट करता है ।
(५) अगृहीत मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र जीवको
अनादिकालसे होते हैं, फि र वह मनुष्य होनेके पश्चात् कुशास्त्रका
अभ्यास करके अथवा कुगुरुका उपदेश स्वीकार करके गृहीत
मिथ्याज्ञान-मिथ्याश्रद्धा धारण करता है, तथा कुमतका अनुसरण
करके मिथ्याक्रिया करता है; वह गृहीत मिथ्याचारित्र है । इसलिये
जीवको भली-भाँति सावधान होकर गृहीत तथा अगृहीत–दोनों
प्रकारके मिथ्याभाव छोड़ने योग्य हैं, तथा उनका यथार्थ निर्णय
करके निश्चय सम्यग्दर्शन प्रगट करना चाहिये । मिथ्याभावोंका सेवन
४८ ][ छहढाला