उपयोग :– जीवकी ज्ञान-दर्शन अथवा जानने-देखनेकी शक्तिका
व्यापार ।
एकान्तवाद :– अनेक धर्मोंकी सत्ताकी अपेक्षा न रखकर वस्तुका
एक ही रूपसे निरूपण करना ।
दर्शनमोह :–आत्माके स्वरूपकी विपरीत श्रद्धा ।
द्रव्यहिंसा :–त्रस और स्थावर प्राणियोंका घात करना ।
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भावहिंसा :–मिथ्यात्व तथा राग-द्वेषादि विकारोंकी उत्पत्ति ।
मिथ्यादर्शन :–जीवादि तत्त्वोंकी विपरीत श्रद्धा ।
मूर्तिक :– रूप, रस, गन्ध और स्पर्श सहित वस्तु ।
अन्तर-प्रदर्शन
(१) आत्मा और जीवमें कोई अन्तर नहीं है, मात्र पर्यायवाची शब्द
हैं ।
(२) अगृहीत (निसर्गज) तो उपदेशादिकके निमित्त बिना होता है;
परन्तु गृहीतमें उपदेशादि निमित्त होते हैं ।
*अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति ।
तेषामेवोत्पत्तिर्हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।।४४।।
(पुरुषार्थसिद्धि० )
अर्थ– वास्तवमें रागादि भावोंका प्रगट न होना सो अहिंसा है और रागादि
भावोंकी उत्पत्ति होना सो हिंसा है — ऐसा जैनशास्त्रका संक्षिप्त
रहस्य है ।
५० ][ छहढाला