(निवारी) नाश करनेवाले (लोकालोक) लोक तथा अलोकको
(निहारी) जानने-देखनेवाले (श्री अरिहन्त) अरहन्त परमेष्ठी
(सकल) शरीरसहित (परमातम) परमात्मा हैं ।
भावार्थ : – (१) जो निश्चयसम्यग्दर्शनादि सहित हैं; तीन
कषाय रहित, शुद्धोपयोगरूप मुनिधर्मको अंगीकार करके अंतरंगमें
तो उस शुद्धोपयोगरूप द्वारा स्वयं अपना अनुभव करते हैं, किसीको
इष्ट-अनिष्ट मानकर राग-द्वेष नहीं करते, हिंसादिरूप
अशुभोपयोगका तो अस्तित्व ही जिनके नहीं रहा है–ऐसी अन्तरंग-
दशा सहित बाह्य दिगम्बर सौम्य मुद्राधारी हुए हैं और छठवें प्रमत्त-
संयत गुणस्थानके समय अट्ठाईस मूलगुणोंका अखण्डरूपसे पालन
करते हैं वे, तथा जो अनन्तानुबन्धी एवं अप्रत्याख्यानावरणी ऐसी दो
कषायके अभावसहित सम्यग्दृष्टि श्रावक हैं वे मध्यम अन्तरात्मा हैं,
अर्थात् छठवें और पाँचवें गुणस्थानवर्ती जीव मध्यम अन्तरात्मा हैं।
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(२) सम्यग्दर्शनके बिना कभी धर्मका प्रारम्भ नहीं होता;
जिसे निश्चयसम्यग्दर्शन नहीं है, वह जीव बहिरात्मा है ।
(३) परमात्माके दो प्रकार हैं–सकल और निकल । (१) श्री
अरिहंत-परमात्मा वे सकल१ (शरीरसहित) परमात्मा हैं, (२) सिद्ध
परमात्मा वे निकल२ परमात्मा हैं । वे दोनों सर्वज्ञ होनेसे लोक और
✽सावयगुणेहिं जुत्ता, पमत्तविरदा य मज्झिमा होंति ।
श्रावकगुणैस्तु युक्ताः, प्रमत्तविरताश्च मध्यमाः भवन्ति ।।
अर्थ– श्रावकके गुणोंसे युक्त और प्रमत्तविरत मुनि मध्यम अंतरात्मा हैं ।
(स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा–१९६)
१. स=सहित, कल=शरीर, सकल अर्थात् शरीर सहित ।
२. नि=रहित, कल=शरीर, निकल अर्थात् शरीर रहित ।
तीसरी ढाल ][ ६१