समयमें युगपत् अर्थात् (एकसाथ) जानने-देखनेवाले, सबके ज्ञाता-
द्रष्टा हैं, इससे निश्चित होता है कि–जिस प्रकार सर्वज्ञका ज्ञान
व्यवस्थित है; उसीप्रकार उनके ज्ञानके ज्ञेय–सर्वद्रव्य–छहों द्रव्योंकी
त्रैकालिक क्रमबद्ध पर्यायें भी निश्चित-व्यवस्थित हैं, कोई पर्याय
उल्टी-सीधी अथवा अव्यवस्थित नहीं होती, ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव
मानता है । जिसकी ऐसी मान्यता (–निर्णय) नहीं होती, उसे स्व-
पर पदार्थोंका निश्चय न होनेसे शुभाशुभ विकार और परद्रव्यके साथ
कर्ताबुद्धि-एकताबुद्धि होती ही है; इसलिये वह जीव बहिरात्मा
है
औदारिक शरीरादि नोकर्म–ऐसे तीन प्रकारके (कर्ममल) कर्मरूपी
मैलसे (वर्जित) रहित, (अमल) निर्मल और (महन्ता) महान
(सिद्ध) सिद्ध परमेष्ठी (निकल) निकल (परमातम) परमात्मा हैं ।
वे (अनन्त) अपरिमित (शर्म) सुख (भोगैं) भोगते हैं । इन तीनोंमें
(बहिरातमता) बहिरात्मपनेको (हेय) छोड़ने योग्य (जानि) जानकर
और (तजि) उसे छोड़कर (अन्तर आतम) अन्तरात्मा (हूजै) होना