Chha Dhala (Hindi). Gatha: 7: ajeev-pudgal, dharm aur adharm dravyake lakShan tathA bhed (Dhal 3).

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चाहिये और (निरन्तर) सदा (परमातमको) [निज ] परमात्मपदका
(ध्याय) ध्यान करना चाहिए; (जो) जिसके द्वारा (नित) अर्थात्
निरंतर (आनन्द) आनन्द (पूजै) प्राप्त किया जाता है ।
भावार्थ :औदारिक आदि शरीर रहित शुद्ध ज्ञानमय,
द्रव्य-भाव-नोकर्म रहित, निर्दोष और पूज्य सिद्ध परमेष्ठी ‘निकल’
परमात्मा कहलाते हैं; वे अक्षय अनन्तकाल तक अनन्तसुखका
अनुभव करते हैं । इन तीनमें बहिरात्मपना मिथ्यात्वसहित होनेके
कारण हेय (छोड़ने योग्य) है; इसलिये आत्महितैषियोंको चाहिये
कि उसे छोड़कर, अन्तरात्मा (सम्यग्दृष्टि) बनकर परमात्मपना प्राप्त
करें; क्योंकि उससे सदैव सम्पूर्ण और निरंतर अनन्त आनन्द
(मोक्ष)की प्राप्ति होती है
।।।।
अजीव–पुद्गल, धर्म और अधर्मद्रव्यके लक्षण तथा भेद
चेतनता बिन सो अजीव है, पंच भेद ताके हैं
पुद्गल पंच वरन-रस, गंध-दो फरस वसु जाके हैं ।।
जिय पुद्गलको चलन सहाई, धर्मद्रव्य अनरूपी
तिष्ठत होय अधर्म सहाई, जिन बिन-मूर्ति निरूपी ।।।।
अन्वयार्थ :जो (चेतनता-बिन) चेतनता रहित है
(सो) वह (अजीव) अजीव है; (ताके) उस अजीवके (पंच भेद)
पाँच भेद हैं; (जाके पंच वरन-रस) जिसके पाँच वर्ण और रस,
दो गन्ध और (वसू) आठ (फ रस) स्पर्श (हैं) होते हैं, वह
पुद्गलद्रव्य है । जो (जिय) जीवको [और ] (पुद्गलको)
पुद्गलको (चलन सहाई) चलनेमें निमित्त [और ] (अनरूपी)
अमूर्तिक है वह (धर्म) धर्मद्रव्य है तथा (तिष्ठत) गतिपूर्वक
स्थितिपरिणामको प्राप्त [जीव और पुद्गलको ] (सहाई) निमित्त
तीसरी ढाल ][ ६३