(ध्याय) ध्यान करना चाहिए; (जो) जिसके द्वारा (नित) अर्थात्
निरंतर (आनन्द) आनन्द (पूजै) प्राप्त किया जाता है ।
परमात्मा कहलाते हैं; वे अक्षय अनन्तकाल तक अनन्तसुखका
अनुभव करते हैं । इन तीनमें बहिरात्मपना मिथ्यात्वसहित होनेके
कारण हेय (छोड़ने योग्य) है; इसलिये आत्महितैषियोंको चाहिये
कि उसे छोड़कर, अन्तरात्मा (सम्यग्दृष्टि) बनकर परमात्मपना प्राप्त
करें; क्योंकि उससे सदैव सम्पूर्ण और निरंतर अनन्त आनन्द
(मोक्ष)की प्राप्ति होती है
पाँच भेद हैं; (जाके पंच वरन-रस) जिसके पाँच वर्ण और रस,
दो गन्ध और (वसू) आठ (फ रस) स्पर्श (हैं) होते हैं, वह
पुद्गलद्रव्य है । जो (जिय) जीवको [और ] (पुद्गलको)
पुद्गलको (चलन सहाई) चलनेमें निमित्त [और ] (अनरूपी)
अमूर्तिक है वह (धर्म) धर्मद्रव्य है तथा (तिष्ठत) गतिपूर्वक
स्थितिपरिणामको प्राप्त [जीव और पुद्गलको ] (सहाई) निमित्त