Chha Dhala (Hindi). Bhoomika Jivki anadikaleen saat bhule.

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भूमिका
कविवर पण्डित दौलतरामजी कृत ‘‘छहढाला’’
जैनसमाजमें भलीभाँति प्रचलित है। अनेक भाई-बहिन उसका
नित्य पाठ करते हैं। जैन पाठशालाओंकी यह एक पाठय पुस्तक
है। ग्रन्थकारने संवत् १८९१की वैशाख शुक्ला ३, (अक्षय-
तृतीया)के दिन इस ग्रन्थकी रचना पूर्ण की थी। इस ग्रन्थमें
धर्मका स्वरूप संक्षेपमें भलीभाँति समझाया गया है; और वह भी
ऐसी सरल सुबोध भाषामें कि बालकसे लेकर वृद्ध तक सभी
सरलतापूर्वक समझ सकें।
इस ग्रन्थमें छह ढालें (छह प्रकरण) हैं, उनमें आनेवाले
विषयोंका वर्णन यहाँ संक्षेपमें किया जाता है
जीवकी अनादिकालीन सात भूलें
इस ग्रन्थकी दूसरी ढालमें चार गतिमें परिभ्रमणके
कारणरूप मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्रका स्वरूप बताया गया है।
इसमें मिथ्यादर्शनके कारणरूप जीवकी अनादिसे चली आ रही
सात भूलोंका स्वरूप दिया गया है; वह संक्षेपमें निम्नानुसार है
(१) ‘‘शरीर है सो मैं हूँ,’’ऐसा यह जीव अनादि-कालसे मान
रहा है; इसलिए मैं शरीरके कार्य कर सकता हूँ, शरीरका
हलन-चलन मुझसे होता है; शरीर (इन्द्रियोंमें)के द्वारा मैं
जानता हूँ, सुखको भोगता हूँ, शरीर निरोग हो तो मुझे लाभ
हो
इत्यादि प्रकारसे वह शरीरको अपना मानता है, यह
महान भ्रम है। वह जीवको अजीव मानता है; यह जीवतत्त्वकी
भूल है।