भावार्थ : – जिसमें छह द्रव्योंका निवास है उस स्थानको
+आकाश कहते हैं । जो अपने आप बदलता है तथा अपने आप
बदलते हुए अन्य द्रव्योंको बदलनेमें निमित्त है, उसे
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‘‘निश्चयकाल’’ कहते हैं । रात, दिन, घड़ी, घण्टा आदिको
‘‘व्यवहारकाल’’ कहा जाता है । –इस प्रकार अजीवतत्त्वका वर्णन
हुआ । अब, आस्रवतत्त्वका वर्णन करते हैं । उसके मिथ्यात्व,
अविरत, प्रमाद, कषाय और योग –ऐसे पाँच भेद हैं ।।८।।
[आस्रव और बन्ध दोनोंमें भेद;–जीवके मिथ्यात्व-मोह-
राग-द्वेषरूप परिणाम वह भाव-आस्रव हैं और उन मलिन भावोंमें
स्निग्धता वह भाव-बन्ध है । ]
+जिस प्रकार किसी बरतनमें पानी भरकर उसमें भस्म (राख) डाली
जाये तो वह समा जाती है; फि र उसमें शर्करा डाली जाये वह भी
समा जाती है; फि र उसमें सुइयाँ डाली जायें तो वे भी समा जाती
हैं; उसीप्रकार आकाश में भी मुख्य अवगाहन-शक्ति है; इसलिये
उसमें सर्वद्रव्य एक साथ रह सकते हैं । एक द्रव्य दूसरे द्रव्यको
रोकता नहीं है ।
✽अपनी-अपनी पर्यायरूपसे स्वयं परिणमित होते हुए जीवादिक
द्रव्योंके परिणमनमें जो निमित्त हो उसे कालद्रव्य कहते हैं । जिस
प्रकार कुम्हारके चाकको घूमनेमें धुरी अर्थात् कीली । कालद्रव्य
को निश्चयकाल कहते हैं । लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं उतने
ही कालद्रव्य (कालाणु) हैं । दिन, घड़ी, घण्टा, मास –उसे
व्यवहारकाल कहते हैं ।
(जैन सिद्धान्त. प्रवेशिका) ।
६६ ][ छहढाला